बहुत ही सुन्दर पंक्तिया एक नारी की कलम से


छोटी थी जब,  बहुत ज्यादा बोलती थी
माँ हमेशा झिडकती ,
चुप रहो ! बच्चे ज्यादा नहीं बोलते .


थोड़ी बड़ी हुई जब , थोड़ा ज्यादा बोलने पर
माँ फटकार लगाती 
चुप रहो ! बड़ी हों रही हों .


जवान हुई जब , थोड़ा भी बोलने पर 
माँ जोर से डपटती 
चुप रहो  , दूसरे के घर जाना है .


ससुराल गई जब , कु़छ भी बोलने पर 
सास ने ताने कसे, 
चुप रहो , ये तुम्हारा मायका नहीं .


गृहस्थी संभाला जब , पति की किसी बात पर बोलने पर 
उनकी डांट मिली , 
चुप रहो ! तुम जानती ही क्या हों ? 


नौकरी पर गई , सही बात बोलने पर कहा गया 
चुप रहो ! अगर काम करना है तो 


थोड़ी उम्र ढली जब , अब जब भी बोली तो 
बच्चों ने कहा 
चुप रहो ! तुम्हें इन बातों से क्या लेना .


बूढ़ी हों गई जब , कुछ भी बोलना चाहा तो 
सबने कहा
चुप रहो ! तुम्हें आराम की जरूरत है। 


इन चुप्पी की तहों में , आत्मा की गहों में 
बहुत कुछ दबा पड़ा है 
उन्हें खोलना चाहती हूँ , बहुत कुछ बोलना चाहती हूँ 
पर सामने यमराज खड़ा है , कहा उसने 
चुप रहो ! तुम्हारा अंत आ गया है
और मैं चुपचाप चुप हो गई
*हमेशा के लिए...✍🏻