'भोपाल का "पूरा सच" Poora Sach'
'धर्मेंद्र पैगवार'
भोपाल। चुनाव हो गया। अब सबको नतीजों का इंतजार रहेगा। भोपाल में 1999 से पूरे 20 साल बाद चुनाव में रोमांच दिखा है। तब भोपाल में ही पले-बढ़े कांग्रेस के श्री सुरेश पचौरी और खजुराहो से आईं साध्वी उमा भारती के बीच चुनाव हुआ था। बिल्कुल इसी तरह, तब भी कांग्रेस सरकार थी। पूरे प्रदेश के पचौरी समर्थक भोपाल आए थे, तब साध्वी चुनाव जीती थीं। इस बार भी दिग्विजय सिंह जी के समर्थकों ने पूरी मेहनत की।
बहुत लंबे अर्से बाद कांग्रेस भोपाल में जिंदा दिखी। दिग्विजय सिंह जी ने बहुत मैनेजमेंट से चुनाव लड़ा। हर पहलू को ध्यान में रखा। उनकी टीम भी यहां मजबूत थी। पीसी शर्मा, आरिफ अकील उनके कोटे से ही मंत्री हैं। उनके बेटे जयवर्धन सिंह ने भी पूरे चुनाव के हर पक्ष पर ध्यान दिया। इस सबके बावजूद भोपाल में नतीजे में कोई चमत्कार नहीं होने वाला है।
भोपाल के चुनाव में मोदी फैक्टर बड़ा काम कर गया है। दिग्विजय सिंह जी की टीम बहुत हद तक दलित, मुस्लिम, राजपूत वोटों के अलावा व्यक्तिगत नेटवर्क पर काम कर रही थी। हालांकि कांग्रेस के मैनेजमेंट में भाजपा के कुछ बडे नेता मैनेज हुए थे। उनके क्षेत्रों में भाजपा को कुछ नुकसान करने की कोशिश हुई। भोपाल में दिग्विजय सिंह से उपकृत लोगों की भी बडी संख्या है, उन लोगों के वोट कांग्रेस को मिले हैं। भाजपा के एक स्थापित नेता की शादी में दिग्विजय सिंह ने मुख्यमंत्री रहते दो लाख रूपए दिए थे। राजा के समर्थक कह रहे हैं कि हमने नेताजी को इस बार एक्टिव नहीं होने दिया।
शहर में बाहर से आए लोग जो शहर को नहीं जानते, वे लगातार गलत जानकारियां देते रहे। यही वर्ग विधानसभा चुनाव के पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान को गलत जानकारियां दे रहा था। नतीजा सबको मालूम है। इसमें एक बड़ा तबका लिखने—पढ़ने वालों का था। इससे इतर एक बात यह भी है कि एलिट क्लास के 20 से 25 हजार वोट भाजपा से छिटक कर दिग्विजय सिंह जी के खाते में गए हैं। ऐसा साध्वी प्रज्ञा सिंह के शुरूआती बयान के कारण हुआ है।
'भोपाल का मिजाज'
कहने में गंगा जमुनी तहजीब भले ही अच्छा शब्द लगता हो, लेकिन यह ऐसा है नहीं। जब शहर में सांप्रदायिकता है तो मतों का ध्रुवीकरण भी इसी आधार पर होता है। ऐसा 1985 से हुआ। हालांकि यह परंपरा खान शाकिर अली खान और पंडित उद्धवदास जी मेहता के दौर से थी। भोपाल दक्षिण से 1985 में भाजपा ने हसनात सिद्दीकी को टिकट दिया था, कांग्रेस के पूर्व उप गृह मंत्री सत्यनारायण अग्रवाल जी चुनाव हार गए थे। कारण, कांग्रेस का मुस्लिम वोट बैंक मुस्लिम उम्मीदवार के पक्ष में चला गया था। 1986 में हसनात जी कांग्रेस में चले गए, उप चुनाव हुआ। इस उपचुनव में पहली बार हिंदू—मुस्लिम के आधार पर ही वोट पड़े। भाजपा के श्री कैलाश नारायण सारंग और सिद्दीकी के बीच का मुकाबला आज भी लोगों को याद है। 1990 में चुनाव हुए तो राम जन्मभूमि आंदोलन शुरू हो चुका था। तब भी एक मात्र भोपाल उत्तर सीट के मुकाबले ने भोपाल के अलावा, सीहोर, विदिशा, रायसेन तक ध्रुवीकरण किया था। 7 दिसंबर 1992 के दंगे के बाद भोपाल की राजनीति में यह खाई ओर गहरी हो गई। हालांकि यह विस्तृत विषय है, इस पर बाद में चर्चा होगी।
यहां दो पहलवानों की कुश्ती भी संप्रदाय के आधार पर होती है। हॉकी और क्रिकेट टीम कैसे चुनी जाती हैं, यह भी लोगों को मालूम है। जो लोग सत्ता में हैं या रहे हैं। वे खुद जानते हैं कि यहां बाजारों के बंद होने के समय भी संप्रदाय को देखकर होता है। नगर निगम और यातायात पुलिस की कार्रवाई में भी इसे ध्यान में रखा जाता है। भले ही यहां 15 साल भाजपा सरकार रही हो। रोड रेज के मामले यहां आम बात हैं। यहां तक कि नगर निगम की पानी सप्लाई में भी यह एक बड़ा आधार है। हो सकता है कुछ लोगों को यह बात चुभे, लेकिन इसे पुराने शहर में जो लोग झेलते हैं, वे पूरी तरह इससे वाकिफ हैं।
'अब चुनाव की बात'
2014 में कांग्रेस उम्मीदवार पीसी शर्मा थे। उनकी इमेज जननेता की है। उस वक्त खुद दिग्विजय सिंह जी भोपाल आए थे। कांग्रेस की राजनीति में आरिफ अकील और पीसी शर्मा में मतभेद थे। खुद दिग्विजय सिंह के बुलावे के बाद अकील उनसे मिलने नहीं गए और अपने छोटे भाई आमिर अकील को सिंह के पास भेजा था। 2014 में भोपाल उत्तर और भोपाल मध्य में मुस्लिम मतदाताओं ने उदासीनता दिखाई थी। व्यक्तिगत रूप से अच्छा संपर्क होने के बाद भी शर्मा जी बड़े अंतर से हार गए थे। तब आठों विधानसभा सीटों पर भाजपा जीती थी।