ईमानदारी अभी जिन्दा है
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ये है असली खबर
जिससे टीवी और अखबार
हैं बेखबर
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रोज सुबह अखबार हमारे घरों में हिंसा,दहशत, अविश्वास और डर के साथ प्रवेश करता है ।हत्या, आत्महत्या,बलात्कार और दंगों में हुई आगजनी, लाठीचार्ज, तोड़फोड़, चक्काजाम की रंगीन सचित्र खबरों को पृष्ठ दर पृष्ठ पलटते हुए हमारा मन-मस्तिष्क शाम होते- होते न चाहते हुए भी यह अनुभव करने लगता है कि अब ये दुनिया अच्छे लोगों के रहने लायक नहीं बची।रही सही कसर पूरी कर देते हैं चौबीस घण्टे चलने वाले न्यूज़ चैनल। छोटी सी घटना को भी एक्सक्लूसिव बनाकर इस अन्दाज़ में प्रस्तुत करते हैं कि मानवता पर तनिक सी भी श्रद्धा हृदय के किसी कोने में बची हो तो शाम ढ़लते ढ़लते उसका श्राद्धकर्म तबीयत से सम्पन्न हो जाए।
दूसरे दिन फिर यही प्रक्रिया निर्विघ्नतापूर्वक दोहरायी जाती है। पिछले कुछ दशकों से निरन्तर प्रतिदिन सूचना तन्त्रों की नकारात्मक सूचनाओं की मार सहते- सहते हम न चाहते हुए भी सौ प्रतिशत यह मान बैठे हैं कि संसार में सभी बेईमान हैं,सभी धोखेबाज हैं। या ईमानदार केवल वही हैं जिन्हें बेईमानी करने का अवसर नहीं मिला।
मैं अखबार पढ़ती हूँ, टीवी देखती हूँ,सोशल मीडिया भी थोड़ा बहुत प्रयोग में लेती हूँ साथ ही परिवार और समाज के बीच भी गहरे आपसी सरोकार रखती हूँ। टीवी के कार्यक्रमों में यदा कदा हिस्सा लेती रहती हूँ इसलिए छोटे पर्दे पर होने वाली गर्मागर्म बहसों एवं रिअलिटी शोज़ के पीछे की आर्टिफिशियलिटी से भलीभाँति परिचित हूँ।
फिर भी जैसे झूठ सौ बार सुनने पर सच लगने लगता है वैसे ही कितना ही बचो लेकिन अखबारों और टेलीविजन की खूनी खबरों के छींटें मन मस्तिष्क पर पड़ ही जाते हैं। पिछले कुछ दिनों से दिल्ली और देश भर में घटी दिल दहला देने वाली घटनाओं ने मुझे भी यह सोचने और मानने पर विवश कर दिया था कि सब कुछ खतम हो गया ।अब कुछ भी नहीं बचा।चाहे वह हैदराबाद,उन्नाव हो चाहे दिल्ली की घनी बस्ती में धड़ल्ले से चल रही फैक्ट्री में लगी आग में एक साथ जलकर मरे पैंतालीस लोग हों, नेताओं की हल्कट बयानबाज़ियाँ हों या तथाकथित बुद्धिजीवियों की मूर्खतापूर्ण डिबेट हो सभी कुछ मस्तिष्क को क्षुब्ध करने के लिए
पर्याप्त रसद सप्लाई करते रहे।
और हम जागरूक,पढ़े लिखे, समझदार कहाते हुए भी अविश्वास की सुरंग से होते हुए अवसाद के प्रवेश द्वार तक पहुँच ही गए।
ऐसी कठिन स्थितियों में अक्सर ईश्वर कुछ न कुछ ऐसा चमत्कार दिखाता है कि मानवता पर गहरे तक पैठी आस्था जो तत्कालीन नकारात्मक घटनाक्रमों से मृतप्राय होना चाह रही होती है वह पुनर्जाग्रत हो जाती है। और लगता है कि ये है असली"खबर" जिससे अखबार और टीवी वाले हैं बेखबर।
हुआ यूं कि कल मैं तिरुअनंतपुरम से नयी दिल्ली आने वाली केरल एक्सप्रेस द्वारा ग्वालियर से नयी दिल्ली आ रही थी। टिकिट कन्फर्म था।ट्रैन में सहयात्री अपने जैसे ही मिलनसार थे सो यात्रा अच्छी हो गयी।ग्वालियर में आई और ताई से मिलने का सुख तो था ही साथ ही इस बार बहुत से पुराने संगी साथियों से अर्से बाद मिलना हुआ सो मन भरा-पूरा,चहचहा रहा था। निजामुद्दीन स्टेशन निकलते ही मैंने अपना सामान जैसे किताबें,चश्मा, मोबाइल, चार्जर आदि समेटकर यथा स्थान रख लिया। बर्थ के नीचे से सूटकेस खींचकर बाहर निकाल लिया। सुपरफास्ट ट्रेन रेंगती हुई शान से कॉलर ऊँची करके डेढ़ घण्टे विलम्ब से घुटे घुटाए चीफ गेस्ट की तरह निजामुद्दीन से नयी दिल्ली स्टेशन पहुँची। आगे जाने की न ट्रैन को जल्दी थी न उतरने की मुझे उतावली।ट्रेन का यह आन्तिम स्टेशन था और मेरा आज कोई कवि सम्मेलन नहीं था।ट्रेन और मैं हम दोनों फुर्सत में थे।सो आराम से सामने की बर्थ पर बैठे शौर्य चक्र विजेता मेजर सन्दीप यादव के बुजुर्ग माता-पिता से बतियाते हुए धीरे धीरे सूटकेस धकेलती हुई मैं प्लेटफ़ॉर्म नम्बर चार पर उतरी। सीढ़याँ चढ़ उतरकर प्लेटफॉर्म नम्बर एक से पहाड़गंज की तरफ बाहर आ गयी।सर्दी और भीड़ दोनों ही पूरे शबाब पर थे।इस शबाब पर अॉटो टैक्सी वाले कबाब सेंकने में लगे थे।कहाँ जाना है?अॉटो चाहिए?ओला के रेट में ही टैक्सी मिलेगी चलना है क्या?पूछ पूछकर इन लोगों ने रेलवे के इस जुमले को सार्थक कर दिया कि" नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर आपका हार्दिक स्वागत है।"
मैं इस स्वागत सत्कार से पीछा छुड़ाती हुई रेलवे स्टेशन परिसर से बाहर निकलकर पद्मश्री बिन्देश्र्वर पाठक जी की अद्भुत परिकल्पना यानी सुलभ शौचालय के सामने रोड की साइड में खड़े होकर कैब बुक करने का उपक्रम करने हेतु पर्स में से फोन निकालने की कोशिश करने लगी। लेकिन पर्स में न तो फोन था न ही चार्जर।दो बार,तीन बार, चार बार पूरा पर्स खँगाल लिया। लेकिन मोबाइल फोन नहीं था तो नहीं मिला।अब क्या करूँ?अब तक तो ट्रेन यार्ड में चली गयी होगी। और अगर प्लेटफॉर्म पर खड़ी भी होगी तो मोबाइल और चार्जर तो जिसे ले जाना होगा वो ले गया होगा। प्लेटफॉर्म पर ट्रेन रुकते ही जितनी फुर्ती से यात्री नहीं उतरते उससे दो गुनी फुर्ती से बॉटल और कचरा बटोरने वालों की सेना धावा बोल देती है।ऐसे में कहाँ और कैसे मिलेगा मेरा प्यारा मोबाइल फोन।असम्भव। फिर मन ने कहा मोबाइल गया तो है ही।पक्का विश्वास है कि नहीं मिलेगा फिर भी चान्स लेने में क्या जाता है।कम से कम मन को तसल्ली ही होगी कि हम बिना लड़े नहीं हारे हैं।श्री सुरेन्द्र दुबे जी जयपुर द्वारा रचित रावण कविता की पंक्ति बिजली की तरह मस्तिष्क में कौंध गयी
"जीतोगे तुम यही विचारो,
बिना लड़े हरगिज़ मत हारो"
बस फिर क्या था।आधे से भी आधे सेकेंड में वापस प्लेटफॉर्म पर जाकर ट्रेन में खोजने का निश्चय किया और फुर्ती से सूटकेस धकेलती हुई पुल चढ़ उतरकर प्लेटफॉर्म नम्बर 4 पर पहुँची।रास्ते में एक कुली से पूछा कि केरल एक्सप्रेस में मेरा मोबाइल रह गया है।मिल जाएगा? वो बहुत विश्वास के साथ बोला हाँ मिल जाएगा।जल्दी जाईए।ट्रेन अभी खड़ी है।उस कुली ने जिस विश्वास के साथ मुझे आश्वस्त किया उससे मेरे कदमों की गति में उत्साह आ गया।सच में केरल एक्सप्रेस प्लेटफॉर्म नम्बर चार पर वैसी ही इतराती हुयी प्लेटफॉर्म पर अपना मालिकाना हक जताती हुई खड़ी थी। लेकिन सभी डिब्बों के दरवाजे बन्द थे।अब मैं क्या करूं? मैंने बन्द शीशों पर आँखें सटा सटाकर देखते हुए अपनी बर्थ खोजी।बर्थ पर, और खिड़की के पास लगे फोल्डिंग टेबल पर न मोबाइल था न चार्जर।अब? मैंने पर्स में से दूसरा मोबाइल निकालकर खोये हुए मोबाइल पर घण्टी की। मोबाइल पर रिंग गयी। तमिल,तेलगू में कोई बोला। शब्द घड़े में कंकड़ डालकर बजाने जैसी कडुनकुडन जैसी ध्वनी करते रहे। मैंने अपनी बात बोली कि मेरा मोबाइल फोन केरल एक्सप्रेस के बी- 4 में रह गया है। अभी मैं बी -4 के सामने खड़ी हूँ। मैंने सोचा कि मुझे तमिल तेलुगू समझ में नहीं आ रही लेकिन हो सकता है कि अगले को हिन्दी समझ में आ जाए।बोलकर मैं रुकी ही थी कि वो बोला वन मिनिट मैडम।आई कम देअर। विडम्बना देखिए भारत में हिन्दी समझ में आयी न तमिल लेकिन अंग्रेजी हम दोनों को समझ आ गयी।बी- 4 का दरवाजा खुला ।साँवले रंग का इकहरे बदन का तकरीबन पच्चीस छब्बीस साल का युवा अटेंडेंट बाहर आया। मुझे देखकर बोला प्लीज रिंग अगेन। मैंने फिर खोए हुए मोबाइल पर घण्टी की।घण्टी उसके हाथ के मोबाइल में बजी।ऐसा करने से उसे तसल्ली हो गयी कि खोए हुए मोबाइल की मालकिन मैं ही हूँ। अटैंडेंट ने मुझे मोबाइल के साथ चार्जर भी सौंपा। मैंने उसको धन्यवाद दिया। अपने ईमान पर दृढ़ रहने के लिए खुश होकर ईनाम भी दिया। बहुत कहने पर उसने ईनाम के नोट स्वीकार किए।उस अटैंडेंट का नाम प्रशान्त है। तमिलनाडु के गाँव का रहने वाला है। आपका उससे परिचय कराने के लिए मैंने उसके साथ सैल्फी भी ली।
खून, आगजनी,हिंसक आन्दोलनों,नारे बाजी, आरोपों-प्रत्यारोपों,झूठ फरेब, और गहरे अविश्वास के बीच ये है प्रशान्त विश्वास। ऐसे लाखों प्रशान्त हमारे आसपास हैं लेकिन चौबीस घण्टे परोसी जा रही नकारात्मकता के बीच हम इन्हें देख ही नहीं पाते।या देखकर भी अनदेखा करते हुए आगे निकल जाते हैं।आप भी आज सुबह से ढ़ूंढ़ना प्रारम्भ कीजिए ।मेरा विश्वास है कि शाम तक आपको एक नहीं अनेक प्रशान्त मिल जाएंगे।धन्यवाद प्रशान्त।
ईमानदारी अभी जिन्दा है।
ये है असली खबर
Divya Shivhare